शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

यह ध्यान्खीन्चू पुत्रवधुएँ आख़िर किसकी सगी हैं ?

नाम इनका कुछ भी हो सकता है, काम सबका एक ही है समाज के निचले पायदान से यह इस्त्रैन्धरोहर इस्त्रित्व धरोहर चुका भुक्ता कर एक झटके से ऊपरले पायदान पर आ पोहुन्चती हैं। यूँ ये डिग्री शुदा होती हैं लेकिन पढ़ा लिखा गुना (गुनी) भी हो यह बिल्कुल भी ज़रूरी नही है इसलिए कहा गया है की पढ़े से गुना ज़्यादा अच्छा होता है। प् पद पर बैठते ही ये अपना दर्जा और ओहदा एक डिग्री बढ़ा कर पति पे गालिब हो जाती हैं, पति खानदान तो फिर किस खेत की मूली है, इनके जीवन से यदि पति नाम की संज्ञा को निकाल दिया जाए तो शेशांक शून्य आता है पुत्र प्राप्ति पर ये सफेदे की पेड़ की ऊंचाइयां छूने लगती हैं, पारिवारिक धरोहर की साड़ी आब आबरू और उर्वरा शक्ति और रचनाशीलता को चूस कर ये गन्ने की पोई सा फेंक देती हैं। जिस देशी को चलकर ये शिखर पर पोहोंचती हैं उसके सारे पायदान एक एक कर के तोड़ देती हैं येही इनका संत्रास, हीन भावना और असुरक्षा बोध है जो बरस डर बरस कायम रहता है। "तुम यह क्यों सूचती हो, तुम्हारा पुत्र यानी हमारा पौत्र हमारी ही फुसफुसाहट से जग गया है, यह क्यों नही सोचती तुम्हारे हाथों में सुपूर्द तुहारे ही पुत्र को गहरी नींद क्यों नही आती ? बच्चा लोरी पसंद करता है, तुम्हारी कर्कश वाणी नही और लोरी के लिए एक मौखिक परम्परा चाहिए, मिठास चाहिए जो तुम्हारे पास नही है। स्वेगत कथन सा कोई बुजुर्ग बुदबुदाए है घर बाहर"।

मैं अब खीजता नहीं हूँ, मैं अब रीझता नहीं हूँ ,
तथस्थ रहता हूँ।
मेरे पास ब्लॉग है, तुम निह्हथि हो।
यूँ तुम्हारे पास पति है,
जिसकी आंच तुम कबकी बुझा चुकी हो,
अब वह अब एक मरा हुआ चूजा है, तुम्हारी कांख में।
अक्सर तुम्हारी जांघ की दराज में पड़ा श्रान्ति दूर करता।

हमारा मानना है : जब कुपात्र को अधिकार मिल जाता है तब ऐसा ही होता है, पुत्रवधुएँ ये भूल जातो हैं उनका पति उनके ससुर का ही विस्तार भाव है, जो निश्चिन्तता दादा की छाँव में होती है उस से यह अनिभिज्ञ हैं। कृतघ्न जो ठहरीं, किराए के मकान में रहती हैं और मकान मालिक बनने का भाव पाले अकडी रहती हैं। २५ वाट की रौशनी में गुज़र करने वाली ये नागारियाँ जबसे २०० वाट के उजाले में आयीं हैं इनका दिमाग भन्नाया हुआ है आँखें चोंध्ग्रस्त हैं। म्योपिया ग्रस्त हैं। इस किस्म की तमाम पुत्रवधुएँ व्यक्ति नही विचार हैं, मानसिकता हैं, पुत्रवधुओं की एक परिवार रोधी नई strain hain.

आज़मगढ़ आतंक्गढ़ कैसे बना ?

आजमगढ़ आतंक्गढ़ कैसे बना ? ये कैफी आज़मी और शबाना आज़मी की विरासत के बीच दहशत गर्द कहाँ से आ गए ? आज यही शबाना का दर्द है। गोरखपुर के योगी आदितयानाथ आजमगढ़ के जिस तकिया मोहल्ले में घुसते ही गोलियों से छलनी कर दिए गए वहां शबाना आज़मी तो बेखोफ जा सकती हैं वह एक कलाकार हैं, अदाकारा हैं तो कलाकार का मन भी उनके पास होगा, वह आजमगढ़ जाएँ और social networking करें। इमामों को हिदयातें दे। आतंक के ख़िलाफ़ उनकी तक़रीरों के मार्फ़त तमाम आज़म्गढ़इयों को बतलायें जो दहशतगर्दों को पनाह देगा या कैसा भी संपर्क रखेगा उसे मुस्लिम समाज इमामों की रेख्देख में पुलिस के हवाले कर देगा। मीरा रोड (मुंबई की मुस्लिम बहूल चोटी सी उपनगरी) यह करिश्मा कर चुकी है, शबाना तो अपने दो तीन रोड शोज़ में ही यह कर सकती हैं। चाहें तो रोड शो के माहिर शो बॉय को भी साथ ले सकती हैं। पुलिस और मीडिया को निशाना बनने से क्या फायेदा जहाँ धुआं होगा वहां कुछ न कुछ ताप तो होगा ही। इसी आजमगढ़ ने कैफी साहिब को मान सम्मान दिलाया है यह आतंक्गढ़ न बने हम भी यही चाहते हैं लेकिन फिलवक्त शकुन अच्छा नही हैं जामिया नगर से प्राप्त पुख्ता सूत्र बताते हैं दहशतगर्दी में संलिप्त तेरह के तेरह आतंकी आज़म्गढ़इए हैं। शबाना जांच करें विश्लेषण करें, यह सब यदि हुआ तो कैसे हुआ सच आख़िर है क्या ? कितना है ?

बुधवार, 24 सितंबर 2008

davaaon ke prati hamara ravaiyaa

जनता जनार्दन और चिकित्सा तंत्र दोनों ही एंटी बायोटिक दवाओं के प्रति जो रवैय्या बनाये रहे हैं उसी का ये नतीजा है कि आज तपेदिक (टी.बी), bacterial निमोनिया बेकाबू हो चले हैं। इन बीमारियों की दवा ही इनकी दवा रोधी किस्में (Drug resistant strains) पैदा कर रही हैं (Breeder Reactor) प्रजनक एटमी भट्टी की तरह। गाहे बगाहे इन दवाओं को तजवीज़ किए जाना नुस्खे पे नुस्खे लिखे जाना बिना सोचे विचारे इन हालात के लिए जिम्मेवार हैं। हम लोग ख़ुद भी अपना इलाज अपने से ही शुरू कर देते हैं और इलाज अक्सर बीच में ही छोड़ देते हैं, नतीजतन कुछ जीवाणु (Bacteria) दवाओं की मार से बच कर अपना रूप बदल कर यानि (Mutate) हो कर अपनी नई संतानें नया प्रतिरूप रचते हैं, यहीं होती हैं (Drug Resistant Strains)। तपेदिक एवं निमोनिया के साथ यही हुआ है। सन २००२ में (Anti biotic resistant- Staphylococcus) ने अकेले अमेरिका में HIV-AIDS का ग्रास बने मरीजों के ठीक दुगने मरीज इस दवा रोधी जीवाणु का ग्रास बने। शोध पर खर्च १ रुपये में से सत्तर पैसे यदि HIV-AIDS पर खर्च होते हैं तो एक पैसा Anti-Biotic दवाओं की शोध पर खर्च होता है। १९३० में प्रति जेइविकी पदार्थों की खोज हुई 1976 तक आते आते जहाँ एक दर्जन से ज़्यादा Anti-Biotics classes खोजे गए वहीँ 1976 se अब तक बमुश्किल इनकी दो और classes ही खोजी जा सकीं। हर नई peedhi की Anti-Biotic दवाएं पहले से ज़्यादा महंगी तथा मात्रात्मक रूप से ज़्यादा देनी पड़ती हैं बीमारी की दवा रोधी किस्मों से पिंड chudhane के लिए इन दवाओं के विनियमन की सख्त ज़रूरत है शोध को बढावा देने की भी तथा नई पीड़ी की दवाओं की निगरानी की भी। नीम हकीमों के हत्थे चढ़ कर ये कैसा भी गुल खिला सकती हैं। तपेदिक के परंपरागत इलाज पर तीन चार दवाओं का मिश्र ६ से ९ माह में बीमारी से पूरी तरह छुटकारा दिला सकता है बशर्ते लग कर टिक कर पूरी धार्मिक निष्ठां के साथ इन दवाओं का सेवन किया जाए अच्छी खुराक के संग हवादार कमरे में रहा जाए। दवाओं पर खर्च बमुश्किल ५०० रुपये आता है. इलाज बीच में छोड़ने पर दवा रोधी तपेदिक पर खर्च आएगा १ से १.५ लाख रूपया, समय लगेगा १ से २ साल, नई पीड़ी की दवाओं के साथ तब जाकर Drug resistant Tuberculosis से निजात मिलेगी। जीवाणु जन्य निमोनिया के मामले में मुश्किलें और भी बढेंगी जहाँ कभी १ तो कभी दोनों फेफड़े बीमारी की चपेट में होते हैं.

सोमवार, 22 सितंबर 2008

राजनीतिक पार्टियां तो अब बनी हैं

मीरजाफर और जयचंद तब भी थे अब भी हैं राष्ट्रविरोधी, राष्ट्रद्रोही और राष्ट्रप्रेमी कल भी थे आज भी हैंअफ़सोस यही है हम अपने अनुभवों से कुछ सीखते नहीं हैंअपने एहसासात तक की अनदेखी करते हैंहवा में फुसफुसाहट है: केन्द्र सरकार उड़ीसा और कर्णाटक को अपना घर ठीक करने की चेतावनी के संग संवेधानिक अनुच्छेद ३५५ के तहत कारवाही करने का भी मन बनाये हैकारवाही करने का हौसला इस सरकार में होता तो फ़िर रोना ही क्या थायहाँ तो आलम यह है: हाथ मुट्ठी फरफरा उट्ठीथेगली नुमा सरकार किस बूते पर ऐसा करेगी, ऐसा करने के बाद धरा ३५६ के तहत दोनों राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने की संविधानिक ताकत और कूवत (तीन चौथाई बहुमत) क्या उसके पास हैजग हँसाई करवानी है तो और बात हैविनाश काले विपरीत बुद्धिसमस्या की जड़ का पता नहीं है, शाखों का इलाज करने चले हैं चौबेजी छबेजी होने की चाहत में दूबेजी हो कर लौटेंगेवजह साफ़ है : दबाव तले तो सरकारें काम करती हैं वह पहुँचती कहीं नहीं हैं, एक वृत्त में घूमती रहती हैंशेर मौजूं है : कुछ लोग इस तरह /जिंदगानी के सफर में हैं /दिन रात चल रहे हैं/ मगर घर के घर में हैं

आत्मा की फसल काटने वाले मज़हबी पोप

ईसाई धर्मं को छोड़ कर क्या कोई और ऐसा मज़हब है जिसकी सर्वोच्च धार्मिक सत्ता, आत्मा की फसल काटने का धंदा करती हो। ईसाई मिशनरियों के मार्फ़त ही सही पोप साहिब ये गोरख धंधा एक बार चीन में तो चलवा कर देखें नानी याद आ जायेगी . इधर हमारे बौधिक भकुए हैं मार्क्सवादी विचारधारा के गुलाम हैं जो अपने आपको सेकुलर केहेल्वाने का तो शौक रखते हैं लेकिन इन्हे अमेरिका की हर चीज़ से परहेज़ है। पुछा जा सकता है भारत में ये धर्मान्तरण की तरफदारी क्यों करते हैं ? यदि अमेरिकी atom मुसलामानों के ख़िलाफ़ है तब evenzelisation jabri isaaikaran roti tukdaa daal कर करवाना हिन्दुओं के hit में कैसे है और इस missonariya dharmantaran में secularwaad कहाँ है। रही बात samvidhaan की to उस में to और भी bohot कुछ likha है swechhik dharmantaran की bhartiya secular samvidhaan बेशक ijazat देता है लेकिन bhartiya samvidhaan tusthiwaad का poshak नही है और dharamnirpeksh visheshan भी हमारे gantantric rashtra राज्य की काया पर indiraji को joda हुआ kshepak है। तभी से यह खून kharaba है tustiwaad की farming जारी है और जो rajnitik दल इसकी kanooni khilafat करता है उसे यह bhakue sampradayik ghoshit कर देते हैं। थोडी पर दादी रखने से कोई बुद्धिजीवी नही हो जाता है। हम जिन्हें अब तक साहित्यकार समझे थे वेह निपट लेफ्टिए रक्तरंगी लाल बामी निकले, यह तमाम भकुए आज पूछते हैं ; धर्मान्तरण : दोष किसका यह सवाल भारत के सेकुलर मंत्रिमंडल से पूछे आवाम से नही जिसे आप कुछ भी लिख कर बहकाते रहते हैं

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

दहशत का मानसिक भूगोल

अपूरवानंद किसी व्यक्ति का स्तंभकार का नाम नही है एक मानसिकता का नाम है सच यह है की अब न कोई सांप्रदायिक है और न सेकुलर तीन तरह के लोग हैं राष्ट्रद्रोही, राष्ट्रविरोधी, और राष्ट्रप्रेमी। राष्ट्रविरोधी लोगों का नार्को टेस्ट यदि कराया जाए आनुवंशिक पड़ताल करायी जाए तो अपूर्वाविशादानान्दों की शिनाख्त आप से आप मुखरित होगीजो तात्कालिकता को दरकिनार कर निष्कर्ष पहले निकाल लेते हैं और सामग्री बाद में जुटाते हैं राष्ट्रीय हितों से ऐसे लोगों का, अपूर्वनान्दों का कोई सरोकार नही होता

क्या यह पूर्व संसद वेदांती के बारे में दुश प्रचारित तमाम बातें उत्तर प्रदेश के पुलिस कमिश्नर के सामने कह सकते हैंजो माया बहिन अपने सांसदों को अपने आवास पर बुला कर उन्हें पुलिस के हवाले कर सकती हैं वेह राम विलास वेदांती को बर्तारफ क्यों करेंगी

आजमगढ़ में आदित्य नाथ की तकिया मोहेल्ले में जो हत्या हुई क्या तमाम अपूर्वानंद मिल कर भी सिद्ध करेंगे की वेह बजरंग दल की करनी थीप्रिंट मीडिया में बकझक करने से क्या हासिल है ? इन्हे जो मकान मिला हुआ है क्या यह उसे शबाना आज़मी को देंगे जिन्हें भारत में रहने को मकान नही मिलताजावेद अख्तर लादेन मुखी राम विलास पासवान, मुलायम और लालू के बारे में दो टूक कभी कुछ कहेंगे ? पुछा जा सकता है की भारत विभाजन के वक्त जो मुस्लमान यहाँ रह गए थे वेह क्या सारे भारत परस्त हैं और जो सरहद के उस पार चले गए वोह पाक परस्त ? नेहरू के समय में भी और उस से पहले भी हिन्दुस्तान की सरज़मीं में जो माद्दा था, इंसानियत का जो जज्बा था, कौमी एकता थी वेह आज भी है लेकिन ऐसे तमाम लोग जिन्हें राष्ट्र से लगाव है विशादानान्दों की आँख में खटकते हैंसाढे तीन लाख हिंदू घाटी से बेदखल किए गए इनके बारे में यह कुछ नही कहतेजो मुसलमान भूखा है नंगा है अनपढ़ है उनके साथ ये कुछ भी साझ नही करतेसत्ता की चौकसी में सिर्फ़ विवध माध्यमों से शाब्दिक जुगाली और विषवमन करते हैंजिस थाली में खाया उसे ही छलनी बना डाला अब और क्या चाहते हैं ये लोग ? "दहशत का भूगोल" विशादानान्दों के जेहन में हैप्रिंट मीडिया में जो कुछ लिखें वह इनका प्रजातांत्रिक अधिकार है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है बस सेकुलरवाद है.

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

हिन्दी की पुण्य तिथि

शातिर दिमाग की उपज थी हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिलवाना। हिन्दी को मृत घोषित करवाने का इस से बेहतर जरिया और हो भी नहीं सकता था - श्राद्ध पूर्व बेला में उसे मरवा दिया जाए। तिस पर तुर्रा ये इस काले दिन को हिन्दी दिवस कहा बतलाया जाए, राजभाषा दिवस नहीं। राजभाषा हिन्दी को नियोजित तरीके से एक कर्म काण्ड के तहत अबूझ, अगम्य बना दिया गया। हिन्दी के अब्बा खुसरो साहिब ने खड़ी बोली को एक नम दिया - हिन्दी, संविधान की मंशा इसे सचमुच राजभाषा बनाने की होती तो १४ सितम्बर १९४९ संविधानिक स्वीकृति के बाद हिन्दी की नियोजित तरीके से हत्या ना की गई होती, उसमे संस्कृत के जींस, जीवनखंड जबरी डाले गए। अमीर खुसरो अब्बा पर भी शक किया गया उन्हें पहला हिंदुत्व वादी बतलाने ठहराने की ना-कामयाब कोशिश की गई। बृज, अवधि, भोजपुरी, मराठी, उर्दू, हिन्दी प्रणय के फलस्वरूप पैदा हिन्दुस्तानी जुबां पर भी नाक भों सिकोड़ा गया। भाषा के सप्रदायीकरण का ये नायाब तरीक था। शुद्धता नरेशों को कथित हिन्दी परमेश्वरों को आज भी चैन नहीं है बाज़ार के डमरू और डुगडुगी पर ग्लोबी खेल दिखाती कदर डर कदम बढाती हिन्दी आप से आप फ़ैल रही है। समास से व्यास हो रही है। श्रध्पर्व मानाने वाले इसे हिन्दी का प्रेत बतलाये हैं, खुदा खैर करे

सोमवार, 15 सितंबर 2008

धू धू जलती दिल्ली

जब हमारी दिल्ली आतंक की आग में धू धू कर के जल रही थी तो म्हारा ग्रह मंत्री ड्रेस्सें बदल रहा था, उसने कसम खाई हुई है जब भी कोई आतंकी वारदात होगी मैं तीन मर्तबा कपडे बदलूँगा। मान्यवर ज़रूर बदलें परन्तु लाल कपड़े न पहने क्योंकि इन्हे देख कर आतंकवादी सांड हर बार भड़क उठता है, आप उन्हें पकड़ने की धमकी देते हैं, वे उत्तर में दूसरी वारदात कर देते हैं। मान्य सरदारजी से निवेदन है, तमाम चैनलियों से निवेदन है इस दुर्मुख को किसी भी आतंकी वारदात के बाद न दिखाएं, ब्लोगिये भी सुसरे को पानी डालें.