मंगलवार, 14 जुलाई 2009

इन सफिलों में वो दरारें हैं

"इन सफिलों में वो दरारें हैं ,जिनमे बसकर नमी नहीं जाती "दुष्यंत कुमारजी की ये पन्कितिया कितनी मौजूं हैं भारतीय प्रजातंत्र के लिए .कामन वेल्थ गेम्स की तैयारी है .मेट्रो रेल लिंक का संजाल उससे पहले पुरा होना है .दिल्ली मेट्रो रेल भारत का फ्लेगशिप है जिसने देश विदेश में ख्याति अर्जित की है ,कार्बन क्रेडिट्स अर्जित किए हैं .उसके तहत चलने वाला द्रुत गामी काम जब सवालों के घेरे में आजाये तो ये चिंता आम औ खास की है .कहीं न कहीं एक आंगिक बिमारी है ,सिस्टमिक दोष है जिसने मेट्रो रेल संजाल में भी सुराख़ कर दिए हैं .ठेके पर चल रहा है ये प्रजेक्ट और इस तंत्र में किसी की कोई जिम्मेवारी नहीं है .सब कुछ कागज पर चल रहा है ,जिसकी गोली बना कर ऐसे घुमाया जाता है ,एक ठेकेदार से दुसरे ,दुसरे से तीसरे की और की कुसूरवार का सुराग लगाना नामुमकिन हो जाता है .आख़िर सब से बड़ा ठेकेदार कौन है ?वो जो कह रहें हैं मेट्रो दुर्घटनाओं की वजह कामन वेल्थ गेम्स के अलोक में होने वाली जल्द बजी नहीं ,या सारे सिस्टम में ही दरारें हैं ,सिर्फ़ उस खंभे में नहीं जिसके कारन जम्रुदपुर दुर्घटना हुई ,बारह हा ,केन्द्रीय सचिवालय से बदरपुर लिंक पर दो दिनी दुर्घटना इसकी ताकीद करती है .अरे भाई इस दरारों वाले खंभे की तो जांच हुई थी .लेकिन भ्रष्टाचार जो लोकतंत्र का पांचवा सबसे ताकत वर खम्बा है ,इससे पर कौन पाये ?ये ही कागज की गोलियाँ बनाके गोल गोल घुमा रहा है ,इस खंभे में दरारें पड़ें तो लोक तंत्र का काम चले ,ये साला खम्बा किसी लांचर के वजन से नहीं टूटता गिरता .ये टूटे तो मेट्रो रेल की आब बरकरार रहे .

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