बुधवार, 29 जुलाई 2009

ग़ज़ल :मुसाफिर

ग़ज़ल
मुसाफिर
मुसाफिर तो मुसाफिर है ,उसका घर नहीं होता /यूँ सारे घर उसीके हैं ,वोह बेघर नहीं होता
ये दुनिया ख़ुद मुसाफिर है ,सफर कोई घर नहीं होता /सफर तोआनाजाना है /सफर कमतर नहीं होता
मुसाफिर अपनी मस्ती में ,किसी से कम नहीं होता ,गिला उसको नहीं होता ,उसे कोई ग़म नहीं होता
मुसाफिर का भले ही कोई अपनाघर नहीं होता /मुसाफिर सबका होता है ,उसे कोई डर नहीं होता
गो अपने घर में अटका आदमी ,बदतर नहीं होता /सफर में चलने वाले से ,मगर बेहतर नहीं होता
सहभाव :डाक्टर नन्द लाल मेहता वागीश ,वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )

1 टिप्पणी:

ved parkash sheoran ने कहा…

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