गुरुवार, 30 जुलाई 2009

पेड़ -परिंदों से हुआ कितना बुरा सुलूक


"महानगर ने फेंक दी मौसम की संदूक ,पेड़ परिंदों से हुआ ,कितना बुरा सुलूक " ज्ञान प्रकाश विवेक जी की ये पंक्तियाँ महानगरों में पेड़ परिंदों से लगातार चल रही छेड़खानी को बे -परदा करतीं हैं .अब दिल्ली को ही लो ,सूखे के से हालत में जब पहली बरसात गिरी (२७-२८जुलाइ २००९ ) तो तक़रीबन २१ वृक्ष जड़ मूल से उखड गए .बेशक जंगलात शोध केन्द्र ,देहरादून के मुताबिक जब लुटियन्स की दिल्ली का प्रारूप रचा गया ,नै दिल्ली का हरा बिछोना तभी बिछा था .बेशक कुछ पेड़ उसी दौर के साक्षी बुजुर्ग है ,कई उम्र पूरी कर शरीर छोड़ गए ,लेकिन इनकी अकाली मौत के लिए महानगरीय लापरवाही ,मानवीकृत वजहें भी कम उत्तरदाई नहीं हैं .हम नहीं कहते ,वृक्ष विज्ञानी कह रहें हैं .वन्य शोध एवं शिक्षा केन्द्र निदेशक जगदीश किश्वन जी के मुताबिक इनमे से कई वृक्ष अस्सी साला हैं ,ओक्तो जनेरियन हैं .इनका गिरना मुनासिब है .अलबत्ता अब तक इनके स्थान पर नए पेड़ रोपे जा सकते थे .बीमार पदों का इलाज़ हो सकता था .जो अन्दर से रित गएँ हैं ,खोखले हो गएँ हैं कभी भी धराशाई हो सकतें हैं .दुर्घटना का सबब बन सकतें हैं .यथोचित प्रजाति चयन और तरतीब रोपण का अपना विशेष महत्व है ,और रहा है .इसे महानगर नियोजन का हिस्सा होना चाहिए ,होना चाहिए था । सिर्फ़ इस एक उपाय से कई दुर्घटनाओं को मुल्तवी रखा जा सकता है ,रखा जा सकता था .महानगर में सड़कों ,मेट्रो का संजाल ,सडको को विस्तार देना ,बारहा डामर बिछाना ,वृक्षों के पर्सनल ब्रीडिंग स्पेस को लील रहा है .पदों का दम घुटने लगा है . साँस लेने में दम फूलने लगा है .जगदीश चंद बासु ने क्रिसको ग्रेफ से पदों की धड़कन दर्ज की थी ,इ .सी .जी .लिया था पेडो का . बतलाया था ,हमारी तरह साँस लेतें हैं पेड़ ,पीडा का अनुभव करतें हैं ,संगीत की ताल पर थिरक्तें है ,नाचते -बतियातें हैं ।विकास्तें हैं रवि शंकर जी का सितार वादन सुन .महानगरीकरण के शोर में पेडो की पीर कौन सुने .माई ऋ मैं का से कहूँ पीर अपने जिया की .जाहिर है सड़कों का विस्तार पदों की जड़ों को नोंच रहा है ,छील रहा है .,काट रहा है .लगर के बिना तो जहाज भी लहरों के हवाले हो जाता है ।एम् .सी .दी .से लेकर रेसिडेंट वेल्फैर असोसिअशन तक ,वृक्षों की बेतरतीब त्रिम्मिंग कर रहें हैं .उपयुक्त यंत्र साधनों के अभाव में तमाम ज़िंदा शाखें ज़रूरत से ज्यादा क़तर वा दी जातीं हैं ,गरीब गुरबों को पेडों पर आरोहन करवा कर ।जबकि पिछ्प्रसाधन ,त्रिम्मिंग एक कला है जो विशेषज्ञता की अपेक्षा रखती है .एक तरफ़ जड़ें साँस लेने के काबिल नहीं ,दूसरी तरफ़ बेतरतीब ज़िंदा शाखाओं की कटाई ,पेड़ की जान ले लेती है ,कोई मर्सिया भी नहीं पढता .शहरों में "गौरा देवियाँ ",(चिपको की जनक ) नहीं होतीं ।जड़ों के गिर्द कंक्रीट से घिरा बंधा वृक्ष साँस ले तो कैसे ?ऊपर से बे-हिसाब गर्मी ,गर्म लू के थपेडे .पेडों को भी निर्जलीकरण होता है ,ज़नाब .अंडर वाटर टेबिल पाताल नाप रही है ,केवल बुन्देल खंड इसका अपवाद नहीं है .तमाम नगरों महानगरों का यही हाल है ,जहाँ जहाँ नलकूपों का चलन है वहाँ स्तिथि बदतर है .ऐसे में जड़ें कहाँ से सिंचित हों ,विस्तार पायें .यहाँ तो अस्तित्व का संकट है (अस्तित्व -वाद ).नीम की तो टेप रूट्स ही चल बसी हैं ,छीज गईं हैं ,नीम धडाधड गिर रहें हैं ."कहाँ गए बेला ,कलि ,नीम और जामुन ,आंव ,काट दिए सब वृक्ष तो ,फ़िर क्यों dhundhen chhanv ?"

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