मंगलवार, 4 अगस्त 2009

मातु यसोदा और मिड -डे मील

एड प्रोग्रेम के तहत यूनिसेफ ने हिंदुस्तान के एक दो राज्यों में फ्रांस से आयातित प्लम्पि - नट्स क्या सप्लाई किए कई विघ्न संतोषी अपने बिलों से निकल आए .हिन्दुस्तान के जीर्ण -शीर्ण स्कूलों की इमारतें किस खस्ता हालत में हैं किसी से छिपा नहीं हैं ,फ़िर ना अब वो कदीमी रसोइए है और ना मातु यशोदा .हमारे जैसे उष्ण -कटिबंधी मुल्क में भोजन को ठीक ठाक तापमान पर बनाए रखना अपने आपमें एक मुसक्कत का काम है .रख -रखाव ,स्वास्थ्य -विज्ञान ,प्रोपर हाइजिनके अभाव में गत तीन सालों में ३२७३ बच्चे दूषित मिड -डे मील का ग्रास बन चुके हैं .अलग से रसोइए की प्रत्येक स्कूल में व्यवस्था कहाँ हैं ?ले देकर मॉस -साहिबान से ही ये काम करवा लिया जाता है ।हर काम की एक चलताऊ व्यवस्था है ,इससे कोई इनकार कर सकता है .ताज़ा गरमा गर्म भोजन हिन्दुस्तान का एक आदर्श है ,हकीकत नहीं .,है .कुपोषण चार्ट में हम बराबर बढ़त बनाए हुए हैं .लेकिन ना कुछ से कुछ तो होना ,मशीन का बना भरोसे मंद खाद्य तो नौनिहालों तक पहुंचे ,ये हिन्दुस्तान में एक बड़ा मुद्दा है ,जहाँ गावों -शहरों -महानगरों में बिजली के खम्बें हैं ,बिजली नहीं हैं .गामा -विकिरण से उपचारित खाद्य कमसे कम ख़राब तो नहीं होता ,६महिने बाद पनीर का पेकित खोलिए ताज़ा ही निकलेगा ,उसमें फंगस (फफूंद का डेरा नहीं होगा )।राष्ट्रिय सलाह कार समिति ,योजना आयोग ,बाल कल्याण मंत्रालय स्थानीय साधनों से तैयार ताज़ा भोजन की वकालत कर रहें है ,लेकिन हमारे पास अमलिया तंत्र कहाँ हैं ,वास्तव में तो सिस्टम (तंत्र ही नहीं हैं )ही नहीं हैं .बड़े से बड़े हादसे हो लेतें हैं ,कसूरवार ठेकेदारी तंत्र में हाथ नहीं आते .कोई ज़वाबदारी तय करके तो दिखलाये .ऐसे घटा टॉप में टेट्रा -पेक या फ़िर डिब्बा बंद पुष्टिकर आहार को अप्नालेने में क्या हर्ज़ है ?हिन्दुस्तानी farm से तैयार करवा लीजियेkया एतराज़ हो सकता है ?

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