गुरुवार, 6 अगस्त 2009

जागी आंखों का खाब सा लगे है ....

सचमुच यकीं नहीं होता ,कल से कचरा बीन -ने वाले नन्ने हाथों में ,किताबें होंगी .बहादुर होटलों ढाबों में ,कोठी -नुमा बड़े आदमियों के रहन में बंधक नहीं होगा .दिवा स्वप्न सा लगे है ,राइट टू एजुकेशन बिल ।
क्या सचमुच अब नौनिहालों को (६-१४ साला )सौ फीसद स्कूल नसीब होगा ,बेगार नहीं उठानी होगी ?और स्कूल भी कमसे कम न्यू -नतम सुविधाओं से लैस होगा -जहाँ अलग -अलग वाश रूम (रेस्ट रूम तोय्लित या गुसल खाने )होंगे एक मास्टर जी के पास एक क्लास रूम होगा ,बच्चों को पीनेका साफ़ पानी मैयस्सर होगा .चालीस बच्चों के निमित्त एक मॉस -साहिब होंगे .लगता है कोई खाब देख रहा हूँ ।
समवर्ती सूचि (कन्क्रेंट )में रख्खी गई है ,फिलवक्त शिक्षा जिसके लिए बजटीय हिस्सा मात्र ३ फीसद रखा गया है सकल घरेलु उत्पाद का .कहाँ से आयेगा इस खाब को अमली जामा पहनाने वाला तंत्र और संसाधन .अभी तो एक स्टेचू को लेकर तलवारे खीच जाती हैं ,दो राज्यों के बीच ,चाहे प्रतिमा फ़िर ठेल्लुवाल्लुवर संत की ही हो .राज्य -केन्द्र सहयोग और भी बड़ा मसला है .और पीने का साफ़ पानी तो आज आलमी मसला है .पानी जिसने मुहावरे बदल दिए है ,बेहद कीमती जींस है पानी ."अब रुपया पानी की तरह नहीं खर्चा जा सकता .पानी महगा है ,रुपया सस्ता है .बहती गंगा में हाथ भी नहीं धोये जा सकते .गंगा ही नहीं ,बहिन जमुना भी गंधाने लगी है .ऐसे में दूर -दराज़ के गाँवों में स्कूल-मदरसों में साफ़ पानी पहुंचाना क्या किसी करिश्मे से कमतर होगा ?
लेकिन यदि भारत को एक आर्थिक शक्ति एक नालिज़ हब बन -ना है तो शुरुआत प्राथमिक शिक्षा की नींव पक्की करने से ही होगी ,करो या मरो ,खाब मत देखो -दिखाओ ,मेरे रहनुमाओं .












1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

सच की दराज़े ख़ाली कर दीं
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