बुधवार, 2 दिसंबर 2009

सार्वजनिक स्थान पर हम भारतीय यूँ ही नहीं थूकतें हैं ...

भारतीय द्वारा थूकना गंदगी को बढ़ाना नहीं हैं ,थूकना सफाई का दर्शन हैं ,वह अन्दर की सुवास को बनाये रखने के लिए बाहर की और थूकता है .थूक एक प्रतिकिर्या है बाहर फैली गंदगी के प्रति .भारत में चारों तरफ़ धूल मिटटी और गंदगी का डेरा है .बाहर के मुल्कों में (विकसितदेशों में) पर्यावरण और आपके आस पास का माहौल एक दम से साफ़ सुथरा रहता है इसलियें भारतीय वहाँ थूक नहीं पाते .यह कहना है मनोविज्यानी प्रोफ़ेसर डॉ .इद्रजीत सिंह मुहार का ।
हमारे साहित्य कार मित्र डॉ .नन्द लाल मेहता वागीश का कहना है -थूकना एक मामूली किर्या मात्र नहीं है ,दर्शन है .अलबत्ता थूकना मानवाधिकार है या नहीं इसकी पड़ताल होनी चाहिए .थूकने पर किसी व्यक्ति विशेष का कापी राईट नहीं हैं .आप जहाँ चाहें थूकें ।
अलबत्ता कई जगह पर डिब्बे रखे होतें हैं ,लिखा होता है ,यहाँ थूकें .अबआप को थूक आ रहा है तभी आप थूकेंगे ,जहाँ थूक आता है ,वहाँ डिब्बा नहीं होता ।
मुग़ल कालीन दरबारी संस्क्रती थूकने पर कसीदे पद्वाती रही है .चाटुकार कहते रहें हैं ,वाह साहिब क्या निशाना है .थूक्कड़ प्रशंशा के पात्र रहें हैं .दो दीवारों के बीच के कौने में जहाँ कुत्ते मूतते थे थूकड़ कलात्मक ढंग से थूक कर गंदगी और बदबू को कम करते थे .दरबारी उनका यशोगान लिखते थे .वाह साहिब क्या थूकतें हैं .पान थूकदों ने आधुनिक कला को जन्म दिया है ।
हमारी संसद में सिवाय थुक्का फजीहत के अब क्या होता है .लिब्रहान कमीशन सत्रह सालों तक थूक बिलोता रहा है .थूक बिलोना सेवा निवृत्त समाज द्वारा समादृत लोगों के रोज़गार का ज़रिया रहा -बारास्ता जांच कमीशन ।
अगर में ग़लत कह रहा हूँ ,आप मेरे मुह पर थूकना ।
थूक कर चाटना ,अपनी बात से मुकर जाना आम औ ख़ास ने बड़ी ही मह नत से सीखा है .चाटुकारिता थूक की ही देन है . चिरकुटों की भीड़ यही करती आ रही है ।
अलबत्ता कुछ कायर किस्म के लोग पीठ पीछे थूकतें हैं .तो कुछ नासमझ आसमान की और मुह उठाकर ही थूक देतें हैं ,समाज में समादृत ऊंची पहुँच वालों के ख़िलाफ़ प्रलाप करने लगतें हैं ।
कुछ लोग बात बे बात कह देतें हैं ,मैं तो तेरे घर थूकने भी ना आवूं .एहम पीड़ित हैं यह तमाम लोग .भाई साहिब थूकने के लिए आप इतनी दूर जायेंगे भी क्यों ?
मुह पे थूकना -किसी के भी और किसी के लिए भी अच्छी बात नहीं है .फ़िर भी लोग अपनी बात का वजन बढ़ाने के लिए अक्सर कह देतें हैं ,मेरी बात ग़लत निकले तो तू मेरे मुह पे थूक देना ।
कुछ लोग सरे आम व्यवश्थापर थूकतें हैं ,अपने गुर्गों से थूक वातें हैं
हैं ,इन्हें "ठाकरे "कहा जाता है ।
कुछ ज़हीन किस्म के लोग किसी के खाने को देखकर ही थूक देतें हैं .सामिष भोजी इनसे बर्दाश्त नहीं होतें .टेबिल मैनर्स का इन्हें इल्म नहीं होता ।
थुक्का फजीहत और थूकना भी क्या मौलिक अधिकारों की श्रेणी में नहीं आता ?
अंत में हम शोध छात्रों को एक विषय अनुसंधान के लिए देतें हुए अपना वक्तव्य समाप्त करतें हैं -इतना थूकने पर भी भारतीयों का हाजमा सेलाइवा (लार की कमी होने )से कम क्यों नहीं होता ?

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