सोमवार, 23 अगस्त 2010

मुद्दा उनकी पगार का

मुद्दा उनकी पगार का है जिन्हें हर जगह पर वी आई पी होने का अतिरिक्त गौरव प्राप्त है .जो देश के नीति निर्माता कहलातें हैं .और अपने आपको बुद्धि जीवी भी मानने समझने का वहम भी पालें हैं .भाषण में यह लोक सेवक कहलातें हैं ,कागजों में करोड़ पति .देश के तमाम नौकर शाहों की यह निगरानी रखतें हैं .केवल इसी बिना पर ये यह भी चाहतें हैं ,इनकी तनखा ब्यूरो -क्रेट्स से ज्यादा हो .ताकि यह वरिष्ठ होने श्रेष्ठ दिखने का लुत्फ़ उठा सकें .तर्क है जो इनके नीचे इनकी निगरानी में काम करता है वह इनसे ज्यादा दिहाड़ी क्यों पाए ?
इस बारे में मैंने कई बुद्धि- जीवियों,से बात की है .प्रस्तुत है इसी की पहली किश्त .शिक्षाविद ,शब्द मनीषी ,समाज चिन्तक ,व्याकरण विद डॉ .नन्द लाल मेहता वागीश के विचार ।
आपका यह साफ़ मानना है इन्हें अस्सी हज़ार एक रुपया क्या आठ पैसे भी मूल वेतन के ,पगार के रूप में नहीं मिलने चाहिए. तमाम तरह की जब सुविधाएं इनके कदमों पर हैं .खुले हवादार आवास ,पानी बिजली ,हवाईजहाज की यात्रा ,टेली- फोन ,तमाम तरह के विकास फंड ,साज़ सजावट का सारा साजो सामान ,फिर तनखा किसबात की और क्यों ?और अगर इन्हें कुछ देना ही है तो इस देश के पोलिस कोंस्टेबिल या फिर स्कूल टीचर के बराबर पगार दो ,आखिर यह जन सेवक हैं .जब तक यह नहीं होगा भ्रष्टाचार की अमर बेल को ये यूं ही सींचते रहेंगें .प्रजातंत्र को अपने किचिन गार्डन का फल समझकर खाते रहें गें .प्रजातंत्र के फल खाते रहेंगें .बेशक तनखा देनी है तो प्रधान मंत्री और राष्ट्र -पति को दो .

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