रविवार, 23 जनवरी 2011

इलाज़ से बचाव ही सदा सर्वोत्तम है .

जब शरीर में सदा विद्यमान ये त्रि -धातु वात ,पित्त ,कफ तीनों उचितआहार विहार के कारण शरीर में आवश्यक अंश में रहकर ,समावस्था में रहतें हैं और शरीर का परिचालन ,संरक्षण तथा संवर्धन करतें हैं तथा इनके द्वारा शारीरिक क्रियाएं स्वाभाविक और नियमित रूप से होतीं हैं जिससे व्यक्ति स्वस्थ तथा दीर्घायु बनता है तब आरोग्यता की स्तिथि रहती है ।
इसके विपरीत स्वास्थ्य के नियमों का पालन न करने अनुचित और विरुद्ध आहार विहार करने ,ऋतु -चर्या ,दिनचर्या, रात्रि -चर्या ,व्यायाम आदि पर ध्यान न देने तथा विभिन्न प्रकार के भोग विलास और आधुनिक सुख सुविधाओं में अपने में और इन्द्रियों को आसक्त कर देने के परिणाम स्वरूप ये ही वात ,पित्त ,कफ ,प्रकुपित होकर जब विषम अवस्था में आ जातें हैं तब अस्वस्थता की स्थिति रहती है .प्रकुपित वात ,पित्त ,कफ रस ,रक्त आदि धातुओं को दूषित करतें हैं .यकृत ,फेफड़े ,गुर्दे आदि आशयों /अवयवों को विकृत करतें हैं ,उनकी क्रियाओं को अनियमित करतें हैं और बुखार ,दस्त आदि रोगों को जन्म देतें हैं जो गंभीर हो जाने पर जानलेवा भी हो सकतें हैं .इसीलिए अच्छा तो यही है कि रोग ही न हो .इलाज़ से बचाव सदा ही सर्वोत्तम है ।
सारांश यह है कि 'त्रिदोष सिद्धांत 'के अनुसार शरीर में वात ,पित्त ,कफ जब संतुलित या सम अवस्था में होतें हैं तब शरीर स्वस्थ रहता है .इसके विपरीत जब ये प्रकुपित होतें हैंअसंतुलित या विषम हो जातें हैं तो शरीर अस्वस्थ हो जाता है .

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