रविवार, 9 जनवरी 2011

ग़ज़ल :'समझ न पाए लोग '

ग़ज़ल :'समझ न पाए लोग '-नन्द मेहता वागीश ,वीरेंद्र शर्मा (वीरुभाई )।
"समझ न पाए लोग "
डरे हुए अपनी दुनिया से ,खुद से भी उकताए लोग ,
क्या कर सकते परिवर्तन ये ,खाए -पीये अघाए लोग ।
नष्ट भ्रष्ट कर जैव विविधता ,बुद्धि से चकराए लोग ,
करके धरती एक हज़म ,अब मंगल पर मंडराए लोग ।
माल बिकाऊ से लागतें हैं ,बाज़ारों में छाये लोग ,
कौन गिरा है कौन चढ़ा है ,इसी होड़ में आये लोग ।
सपने बुनकर बेचके सोते ,ऐसे हैं भरमाये लोग ,
कुर्सी खातिर खूब लड़ाते ,ऐसे शातिर छाये लोग ।
राजनीति का चौला पहने ,कितने नंगे आये लोग ,
पूंछ हिलाते वोट की खातिर ,इस पर भी इतराए लोग ।
अपनी ही जाति पर भौकें ,ऐसे हैं कुत्ताये लोग ,
भाड़ में जाएँ देश के वासी ,ऐसे हिंसक आये लोग ।
अबकी बार पलट डालेंगें ,इतने हैं गुस्साए लोग ,
जीने और मरने की हद तक ,ऐसे हैं भन्नाए लोग ।
आतंकी हाथों से तूने ,इतने हैं मरवाए लोग ,
देश बंटा था किसकी खातिर ,अबतक समझ न पाए लोग .

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