बुधवार, 4 सितंबर 2013

हे निष्पाप अर्जुन !प्रत्येक आत्मा अपने शुद्ध रूप में बुनियादी स्वरूप में निष्पाप है। किसी न किसी मोह में फंसकर वह कलुषित हो जाती है।

श्रीमदभगवत गीता चौदहवाँ अध्याय त्रिगुणत्रयविभाग 

योग :भाव विस्तार श्लोक संख्या (१ -१७ )

इस अध्याय  में  उन तीन गुणों की चर्चा है जिनके द्वारा प्रकृति अपना कार्य करती है। अलावा इसके ज्ञान की महिमा ,प्रकृति और महद ब्रह्म  के संयोग से  सृष्टि  की रचना, भागवत प्राप्ति का उपाय,त्रिगुणातीत हो गए ऐसे व्यक्ति का जो परमात्मा को प्राप्त हो गया है आदि का उल्लेख है। 

गीता के ज्यादातर अध्यायों का प्रारम्भ अर्जुन की जिज्ञासा से होता है 

लेकिन हर जगह ऐसा नहीं भी है। जहां जहां अर्जुन की किसी जिज्ञासा के बिना अध्याय का आरम्भ है वहां वहां भगवान् स्वयं बहुत खुश होकर 

अर्जुन को ज्ञान की बातें बतलाते हैं.यह अध्याय ऐसा ही है इसीलिए इसका बड़ा महत्व है। 

इसीलिए हमने इस अध्याय को दूसरे के ठीक बाद में ले लिया है। इसके बाद तीसरे  अध्याय से ही आगे बढ़ेंगे। 

भगवान् इस अध्याय में कह रहें हैं ज्ञानों में भी जो सर्वोत्तम ज्ञान है अल्टीमेट ना -लिज है मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। जिस को जानकर सब मुनिजन संसार से मुक्त होकर परमसिद्धि को प्राप्त हो गए हैं। आत्म साक्षात्कार ,परमात्मा से साक्षात्कार की सिद्धि इसे धारण कर मुनिजनों को प्राप्त हुई है। 

लेकिन जो मुनि नहीं हैं उनके लिए क्या है ?अब सब तो मुनि होते नहीं हैं इस समाज में। 

भगवान् कहते हैं इस ज्ञान को जानकार हर व्यक्ति द्रष्टा बन जाता है। संस्कृति पदार्थ और सारे वैभव का साक्षी हो जाता है। जैसे अमीर हो जाने के बाद व्यक्ति को सब कुछ प्राप्त हो जाता है उसके जीवन में फिर किसी और चीज़ की चाह नहीं रह जाती है वैसे ही इस ज्ञान को प्राप्त कर साधारण से  साधारण व्यक्ति भी अपनी साधारणता से ऊपर उठ जाता है।  

इस ज्ञान को व्यवहार में उतार कर जो व्यक्ति जीने का प्रयास करता है उसकी महिमा ,उसकी फिर स्थिति मेरे जैसी ही हो जाती है। जैसे बूँद सागर में समाने के बाद फिर सागर ही हो जाती है। अलग से फिर उसका अस्तित्व नहीं रह जाता है। 

आज समाज की यह स्थिति है :

हर सायं काल हमारे जीवन में प्रलय काल और आरम्भ सृष्टि के आरम्भ जैसा है।

न जाने किस तरह तो रात भर, छप्पर बनाते हैं ,

सवेरे ही सवेरे आंधियां ,फिर लौट आतीं हैं। 


 हर दिन हमारे लिए एक नया दिन है नै क़यामत है ,कभी दुःख चला आ रहा है कभी सुख ,कभी सफलता कभी असफलता हमारा स्पर्श करती है। इस ज्ञान को प्राप्त कर लेने के बाद फिर व्यक्ति इनसे प्रभावित होता नहीं है। यह ज्ञान कमल के पत्ते की तरह हमें इन  सब सिच्युएसन्स से ऊपर रखेगा। इस ज्ञान को प्राप्त व्यक्ति मेरे स्वरूप को प्राप्त कर मेरा सारूप्य हो सदा के लिए शोक और भय से मुक्त हो जाता है। 

हे भारत !मेरी जो प्रकृति है वह सब प्राणि मात्र की माँ है ,योनि है ,मैं चेतन ब्रह्म चित्त हूँ। हरेक  जीव परमात्मा का अंश है। मैं इस प्रकृति में गर्भ स्थापित करने वाला पिता हूँ। 

हे कौन्तेय !नाना प्रकार की जो भी योनियाँ हैं ,जितने भी शरीरधारी प्राणि हैं ,प्रकृति उनकी माँ है ,और मैं जो हूँ बीज रूप में उस प्रकृति को स्थापित करता हूँ। प्रकृति माँ है और मैं पिता हूँ। 

भगवान् कहते हैं -सतो ,रजो और तमोगुण प्रकृति से  उत्पन्न ये तीनों गुण अव्यय ,अवि -नाशी हैं। जीवात्मा को ये तीनों गुण इस शरीर में इस संसार में जबर्ज़स्ती  बाँध लेते हैं। बन्धनों से मुक्त होने के लिए हे महाबाहू ताकत चाहिए। भगवान् अर्जुन को महाबाहू कह उसका पुरुषार्थ जगा रहे हैं। 

हे निष्पाप अर्जुन !प्रत्येक आत्मा अपने शुद्ध रूप में बुनियादी स्वरूप में निष्पाप है। किसी न किसी मोह में फंसकर वह कलुषित हो जाती है। 

निर्मल होने के कारण सतोगुण प्रकाश करने वाला है 

,मन, बुद्धि और हमारी 

आत्मा को आलोकित करने वाला है और हर प्रकार के 

विकार  से रहित है। 

पूछा जा सकता है जब यह ऐसा है तो फिर बांधता कैसे है 

?

यह ज्ञान की सुख की आसक्ति से बाँध लेता है। 

हमारे मन में जब  भी अच्छे विचार आते हैं मंदिर  जाने की इच्छा जागृत होती है शाश्त्र पढने की इच्छा पैदा होती है ,कल्याणकारी जो भी विचार आते हैं तब समझो उस काल में हमारे अन्दर सतोगुण बढ़ा हुआ है जो हमें बाँध लेता है अंत में तो हमें इससे भी ऊपर जाना है। सुख और ज्ञान की आसक्ति भी छोडनी है। 

हे कौन्तेय !रजो गुण राग स्वरूप है। जो हमारे मन को अपने अन्दर खींच लेता है वही राग है। यह कामना और आसक्ति से उत्पन्न  होता है। 

यह बांधता कैसे है ?

कर्म और कर्म के फलों की आसक्ति से यही रजोगुण हमें  बाँध लेता है। आसक्त चीज़ों को प्राप्त करने के लिए फिर कर्म करना पड़ेगा। 

अमेरिका रजोगुणी देश है वह ऐसे व्यक्ति की तरह है जो रात भर  बिस्तर सजाता बिछाता रहे और सवेरा हो जाए।संसार का सारा आकर्षण इसके संसर्ग से ही उत्पन्न होता है। जब हम स्वार्थी होकर सिर्फ अपने लिए कर्म करेंगे ,रजो गुण हावी होगा। गड़ बड़   कर्म में नहीं है स्वार्थ में है ,कामना में है वासना में है। 

हे अर्जुन !सभी देहधारियों को विमोहित करने वाला तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न होता है। 

यह बांधता है जीवात्मा को प्रमाद ,आलस्य और निद्रा से। मन का आलस्य प्रमाद है। शरीर का आलस्य आलस है। जैसे सवेरे उठना तो है पर नहीं उठ रहें है। छोड़ो क्या करेंगे उठके और फिर करवट लेके दोबारा सो जातें हैं। 

किस किस का ख्याल कीजिए ,किस किस को रोइये 

आराम बड़ी चीज़ है ,मुंह ढक के सोइये। 

एक बुखार दिमाग को पकड़ता है ,जैसे दिमागी बुखार (प्रमाद )एक शरीर को (आलस्य ) . इसका पिता अज्ञान है। निद्रा से यह पैदा होता है निद्रा निद्रा के उपयोग के लिए है मन को विश्राम देने के लिए है अति सेवन के लिए नहीं है। तमोगुण सभी जीवात्माओं को मोहित करने वाला है। यहाँ गुण से अभिप्राय प्रोपर्टीज़ से है। क्वालिटी और चीज़ है। 

सतोगुण सुख में ,रजो कर्मों में लगाता है। तमोगुण हमारे ज्ञान को दबाकर प्रमाद में लगा देता है। 

तीनों गुण हम सभी के अन्दर होते हैं लेकिन परस्पर एक दूजे को दबाकर भी ये ऊपर नीचे होते रहते हैं। कई बार भगवान् बस यूं ही बहुत याद आते हैं निस्वार्थ।  कई बार ऐसा कर लेंगे  तो यह मिल जाएगा का भाव होता है। 

कैसे मालूम पड़े किस काल में हमारे शरीर में कौन सा 

गुण बढ़ा हुआ है ?

जिस समय इस देह में अंत :करण  में विवेक शक्ति उत्पन्न होती है ,कान  कहे भगवान् का भजन लगाओ ,पैर कहे अरे चलो मंदिर चलते हैं ,मुख मीठा बोले ,चेतनता और विवेकशीलता जिस काल में पैदा होती है तब उस समय हमारे अन्दर सतोगुण  बढ़ा हुआ है ऐसा समझो। 

हे भरत वंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन रजो गुण के बढ़ने पर मन में एक साथ ढेर सारे कामों को करने का विचार आता  है यह भी कर लूं वह भी कर लूं ,और सब कुछ लालच प्रेरित हो ,विषय भोगों और इन्द्रिय सुखों की लालसा मन में हो तब समझो रजो गुण बढ़ा हुआ है। इसी रजो गुण की वजह से जीवात्मा इन्द्रिय सुख की तरफ बार बार विमोहित होता है। अरे थोड़ा और भोग लो। 

तमोगुण के बढ़ने पर अंत :करण और इन्द्रियों में अन्धेरा छा जाता है। कर्तव्य ,कर्मों में प्रमाद आ जाता है। अपनी ड्यूटी ही नेगलेक्ट करने लगता है आदमी। बस समझो वीक एंड आ गया सब कर्मों का।   सब इन्द्रियों में जब तमस आ जाए तो समझो हमारे अन्दर उस समय पर तमो गुण बढ़ा हुआ है। 

पुनरजनम को भगवतगीता ने  कर्म का कारण नहीं माना  है। जिस समय हमारे जीवन में मृत्यु चली आई है और हमारा मन उस वेला सात्विक है ,तब वह शरीर छोड़ने वाला व्यक्ति उत्तम कर्म करने वाले दिव्य ,निर्मल ,स्वर्ग लोकों को प्राप्त होता है। 

सतोगुण  छाया होने पर मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति उत्तम लोकों को जाता है। मृत्यु काल  में रजोगुण बढ़ा होने पर व्यक्ति साधारण मनुष्य योनि  को ही प्राप्त होता है। जबकि तमोगुण के बढे होने की स्थिति में निम्न योनि कीड़े मकोड़ों पशुओं को प्राप्त होता है। 

जो श्रेष्ठ कर्म हैं उनका फल निर्मल है। जहां श्रेष्ठ कर्म हैं वहां ज्ञान है सुख है वैराग्य है। राजस कर्म का फल दुःख है। बोले तो कभी हमने कर्मों में आसक्त हो लोभ लालच वश कर्म किया होगा। 

तमोगुण का फल अज्ञान है। 

इन तीनों गुणों से उत्पन्न क्या होता है ?ज्ञान कहाँ  से 

पैदा होता है ?

जब हमारा जीवन शुद्ध होगा तब उस स्थिति में सतोगुण से ज्ञान उत्पन्न होगा। रजो गुण से लोभ उत्पन्न होगा तमो गुण अज्ञान ,लोभ और विमोह पैदा करता है। लेकिन ये तीनों फिर जीवन को गति कौन सी देते हैं ये आगे की किस्तों में पढ़िए। 

ॐ शाति  



  

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Posted: 02 Sep 2013 11:06 PM PDT

4 टिप्‍पणियां:

Anita ने कहा…

बहुत सरल भाषा में विस्तार से समझाया है भगवद्गीता के गूढ़ श्लोकों को..आभार !

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

मोह ही हमारे गुणों को कलुषित कर देता है .... गीता ज्ञान के लिए आभार ।

रविकर ने कहा…

बढ़िया प्रस्तुति-
आभार आदरणीय वीरूभाई

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सरल, सहज व्याख्या