सोमवार, 14 सितंबर 2015

प्रीति तहाँ पर्दा नहिं ,पर्दा तहाँ न प्रीति , प्रीति नहीं पर्दा नहिं ,तुलसी या अनप्रीति।

अविद्या निवारण लीला है चीरहरण

भागवद्पुराण के दशम स्कंध में चीरलीला प्रकरण आता है। बतादें आपको भगवान का हर कार्य दिव्य होता है.इसे समझने के लिए दृष्टि चाहिए एक सतगुरु चाहिए इसे  मटीरियल आई चर्म चक्षु ,जड़ पदार्थ की बनी आँख से देखेंगे तो अनर्थ ही होगा लीला समझ न आएगी भगवान की। आँख रूप को देखती है दृष्टि स्वरूप को।

बतलादें इस प्रकरण के समय भगवान की उम्र छ : वर्ष थी। सबसे बड़ी गोपी दस बरस की थी अलावा भगवान के सखाओं में से सभी  गोपियाँ किसी की बुआ किसी की बहन थी। किसी की भाभी।

श्री कृष्ण के प्रेम में विभोर होकर संकीर्तन करती हुई गोपियाँ अपने घरों से यमुना स्नान के लिए निकलतीं थीं। इसी भाव समाधि की अवस्था में वे यमुना में प्रवेश करतीं थीं। उन्हें ये होश ही नहीं रहता था उन्होंने कितने वस्त्र उतार दिए हैं।

क्योंकि गोपियों ने निर्वस्त्र होकर यमुना में स्नान किया है जो शाश्त्र विरुद्ध है इसलिए भगवान उनका अपराध निवारण करने के लिए चीर हरण करते हैं। उनके वस्त्र चुरा कर छिपा लेते हैं।

भगवान उनसे कहते हैं तुमने अपराध किया है अब बाहर आकर सूर्य को नमस्कार करो।प्रण करो आइन्दा ऐसा न करने का। इस प्रकार गोपियों के अविद्या के आवरण को भगवान ने इस प्रकरण में हटाया है यही है भगवान की चीर हरण लीला।

यहां वस्त्र हरण के माध्यम से अविद्या का हरण हो गया है। यहां वस्त्रों के माध्यम से जो स्थूल हैं सूक्ष्म अविद्या का निवारण हो गया है।

प्रीति  तहाँ   पर्दा नहिं ,पर्दा तहाँ न प्रीति ,

प्रीति नहीं पर्दा नहिं ,तुलसी या अनप्रीति। 

अगर प्रेम में लज्जा है तो प्रेम वहां शुद्ध नहीं हो सकता है। 

लज्जा और संकोच को छुड़वाकर भगवान ने गोपियों के हृदय को शुद्ध किया है। वृत्तियों के परदे को हटाया है भगवान ने चीरहरण के माध्यम से।हमारी वृत्तियों पर जो पर्दा पड़ा हुआ है वह हट जाए तो जीव और परमात्मा का मिलन हो जाए।

 श्रीकृष्ण हमें पति के रूप में मिल जाएं ऐसी गोपियों की कामना थी। मार्गशीर्ष अगहन में गोपियाँ कात्यायनी देवी की उपासना किया करती थीं इस कामना के साथ कि कृष्ण हमारे पति होवें। 

ठाकुरजी जानते हैं कि आगे चलकर महारास लीला भी इन गोपियन  कु हमारे संग करनी है। प्रेम में लज्जा हो तो प्रेम वहां शुद्ध नहीं हो सकता। अगर लज्जा और संकोच ऐसे छोटे छोटे भ्रमों को भी यदि ये नहीं छोड़ पाएंगी तो आगे रासलीला का पूर्ण आनंद भी नहीं ले पाएंगी। इसलिए निरावरण साक्षात मिलन हो जाए जीव और परमात्मा का। 



विशेष :इन्द्रियों के द्वारा जो भक्ति रस को पीती  हैभक्तिरस पान करती है आठ पहर दिन राती   वह गोपी है। गो का एक अर्थ है इन्द्रियाँ सेन्स ओर्गेंस आफ परसेप्शन।गोपी किसी स्त्री का नाम नहीं है जो अपनी प्रत्येक इन्द्रिय से रस पांन करती है वह गोपी है। जो गोपनशिला है कृष्ण को अपने हृदय में रखती है प्रगट नहीं करती है वह गोपी है। गोपी प्रेम मंदिर की ध्वजा है जो शिखर से भी ऊपर रहती है। वह सीधी साधी गृहिणी  है  किसी की बेटी है किसी की पत्नी किसी की माँ। बनाव श्रृंगार भी करती है प्रतीक्षा भी :

मेरे पिया मैं तो चुप चुप चाह रही ,

मेरे पीया तुम मेघा सावन ,मैं तो चुप चुप नाह रही। `

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