शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

ये ही हैं रोहित वेमुला के हत्यारे जो आज उस सिंह वाहनी के पीछे पड़े हैं जिसका नाम स्मृति ईरानी है।

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Virendra Sharma ने Jai Prakash की पोस्ट साझा की.
जय प्रकाशजी लिखा आपने ,सहभोक्ता हम भी रहे उस पीड़ा के कसक और छटपटाहट के। आज वामपंथियों और कांग्रेसियों ने युवा भीड़ को गुमराह कर देश को उस मुकाम तक पहुंचा दिया है जहां भाषा अपने अर्थ खो चुकी है ,चेतना सुन्न हो चुकी है। किंकर्तव्यविमूढ़ से हम खुद को कोस लेते हैं।
आपने हौसला दिया फिर से खड़े होने का इन टुकड़ख़ोरों के सामने जो मुस्लिम कट्टरपंथ को पोष रहे हैं ,चंद वोटों की खातिर देश को गाली दे रहे हैं ,अफजल को अपना बाप बना रहे हैं ,ये ही हैं रोहित वेमुला के हत्यारे जो आज उस सिंह वाहनी के पीछे पड़े हैं जिसका नाम स्मृति ईरानी है।
इशरत को अपने घर(बिहार ) की बेटी कहने वाले इस देश की सुरक्षा के लिए कितने कमीने साबित हो सकते हैं ये किसी से छिपा नहीं है आज ये स्मृति के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाना चाहते हैं ,असली आतंकी यही चाकर है कट्टर पंथ के। अब तो इन्हें गाली भी देते नहीं बनता।
एक आदत से हो गई है तू ,
और आदत कभी नहीं जाती।
ये जुबां हमसे सी नहीं जाती ,
ज़िंदगी है के जी नहीं जाती।
मुझको ईसा बना दिया तुमने ,
अब शिकायत भी की नहीं जाती।
एक ही बात सूझती है इन्हें इन सबको आइन्दा चुनावों में देखेंगे ,बेलट से मारेंगे इन टुकड़ख़ोरों को भारतधर्मी समाज के तमाम लोग।
जैहिंद जय भारत ,जैहिंद की सेना।
Jai PrakashKaushalesh Tiwari और 76 अन्य लोग के साथ.
एक हृदय स्पर्शी अनुभव...
क्या ऐसा अनुभव वामियों और कोंग्रेसियों को कभी होगा? केजरीवाल का नाम नहीं लूँगा क्योंकि उसका कोई आदर्श या कोई मकसद ही नहीं सिवा मोदी जी और बीजेपी को कोसने के .....
आज यह एक महज इत्तेफ़ाक था की मैं इलाहाबाद में था।
आज यह भी एक इत्तेफ़ाक था की जीवन में पहली बार मैं चन्द्रशेखर पार्क(अल्फ्रेड पार्क) गया था।
आज जब मैं वहां पहुंचा तो चन्द्रशेखर'आज़ाद' की विशाल काय मूर्ति देख को कर दिल धक से रह गया। वहां स्कूली बच्चे पुष्प चढ़ा रहे थे और मूर्ति के सामने फोटो खीचा रहे थे। अपनी स्कूली किताबो में चन्द पन्नों में सिमटे इस विशालकाय व्यक्तित्व को, सिर्फ उनके अंत की गाथा से रोमांचित ये बच्चे, उन्हें याद कर रहे थे।
मैंने वहीं अपने जूते उतार दिए और उनके समूह में जगह बनाते हुए उस मूर्ति के नज़दीक पहुंच गया।जब मैं मूर्ति के पास पहुंचा और नज़र उठा कर चन्द्रशेखर'आज़ाद' की मूर्ति के चेहरे को देखा तो लगा जैसे एक साथ मेरे दिल और दिमाग में लाखों ज्वालामुखी एक साथ फटने लगे और धमाके करने लगे।
मैं 'आज़ाद' से आँखे नही मिला सका और अपनी आँख झुका बन्द कर ली।
आज, लगभग इसी समय, 85 साल पूर्व, यही, जहां मैं खड़ा था, नीम के पेड़ के पीछे से यह भारत माँ के पुत्र 'आज़ाद' गोली चला रहे थे और अँगरेज़ पुलिस ऑफिसर के नेतृत्व में भारतीय कोतवाल, दरोगा उन पर गोलियां झोंक रहे थे।
मैं कॉंप गया।
मुझे लगा जैसे मैं ट्रांस में हूँ, एक अलग दुनिया में हूँ। जहां मैं 'भारत', एक नपुंसक बना एक राष्ट्र भक्त की हत्या, भारतीय के मुखबरी पर, भारतियों द्वारा होते हुए देख रहा हूँ।
इससे पहले मैं और सन्निपात में चला जाता, मैंने बस हाथ बढ़ा कर उनके चरणों को पकड़ लिये।
फिर मेरी सामने से 'आज़ाद' को देखने की हिम्मत नही हुयी और अपनी आँखों से बहते बेशर्म आसुओं को छुपाने के लिए मैं,'आज़ाद' की पीठ के पीछे छुप गया।
'आज़ाद' के मोटे जनेऊ और मुठ्ठी में दबी माउज़र के साये में यह सोचने लग गया की हम कहां आगये है! क्या यहां इस भारत माँ के लाल ने जान जेएनयू में लगे नारो के लिए दी थी?
क्या इस लाल की माँ को गाली देने को अभिव्यक्ति की आज़ादी बनाने के लिए दी थी?
क्या इस जनेऊ धारी ब्राह्मण ने जान अपने देश को जाती के नाम पर बटने के लिए दी थी?
मैं मौन खड़ा रहा, ठीक वैसे ही जैसे चन्द्रशेखर 'आज़ाद' के प्राण पखेरू उड़ने के बाद अल्फ्रेड पार्क मौन हो गया था।
मैं नही जानता की यह अनुभव मुझे वहां क्यों हुआ। शायद पिछले जन्म मैं भी उस दिन अफ्रेड पार्क में था और तमाम नपुंसको की तरह मैं भी किसी पेड़ के पीछे छिपे कायरो की तरह अपनी जान बचाने में लगा था।
आज 85 साल बाद मैं शायद वहां प्रायश्चित करने पहुंचा था। 'आज़ाद' के पैर पकड़ कर, शायद मैंने अपने गिरने को संभाला था। यदि ये मेरा कही प्रायश्चित था, तो यह मेरा संकल्प भी था की भारत की अस्मिता को दागदार करने वालो को अब 'आज़ाद' से निपटना होगा। जो भीतरघात करने वाले अब तक बचते रहे है उन्हें आज अल्फ्रेड पार्क में घेर कर मरना होगा।
जब मेरे वापिस लौटने का समय हो रहा था और मैं तमाम अनुभूतियों को समेटे, चन्द्रशेखर 'आज़ाद' को अंतिम प्रणाम कर के पार्क के बाहर निकल रहा था, तो 60 लोगो का लाल झंडे लिए हुए एक सुजा और चूसा जत्था पार्क में घुस रहा था।
वो लाल झंडा उठाये वामपंथी, 'आज़ाद' को श्रधांजलि देने के नाम पर
'कमरेड उमर खालिद को आज़ाद करो आज़ाद करो' 'कामरेड कनैहिया को आज़ाद करो आज़ाद करो'
ऐसे देश द्रोहीयों के लिए नारे लगा कर चन्द्रशेखर 'आज़ाद,' का उपहास कर रहे थे।
छी!!!!!
यही है राष्ट्र के दुश्मन, यही थे वो जिन्होंने 'आज़ाद' ऐसे तमाम लोगो से गद्दारी की और उन्हें मौत की नींद सुलाया है।
हमे 'आज़ाद' के लिए 'आज़ाद' बनना होगा।

1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बस उम्मीद ही कर सकता हूँ की लोग वोट आने तक ये बाते याद रक्खें न की बेकार की बातें ...