शनिवार, 30 जुलाई 2016

झगरु कीए झगरउ ही पावा

झझा उरझि सुरझि नही जाना ,रहियो झझकि नाही परवाना ,

कत झखि झखि अउरन समझावा ,झगरु कीए झगरउ ही पावा।  

जिस मनुष्य ने (चर्चाओं में पड़कर निकम्मी )उलझनों में ही फंसना सीखा 

,उलझनों में से निकलने की विधि न सीखी ,वह (सारी उम्र )भयभीत ही रहा , 

उसका जीवन स्वीकृत न हो सका। 

वादविवाद कर -करके ,तर्क ,वितंडा खड़ा करके दूसरों को सीख देने का क्या 

लाभ ?

चर्चा (तर्क पंडित बनके )करते हुए अपने आपको तो केवल मात्र चर्चा करने 

,उलझने -उलझाने ,व्यर्थ की बहस करने की आदत ही पड़ गई। 

विशेष: जीवन तर्क के सहारे नहीं चलता ,तर्क की अपनी सीमाएं हैं ,जहां तर्क 

चुक जाता है ,जीवन वही से शुरू होता है। 


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